यह कविता अब से १० वर्ष पूर्व मैंने इस प्रेरणा के साथ लिखी है कि मानव अपने थोड़े से सुकृत्य का बखान कर अपनी तमाम बुराइयों को उसके अंदर ढँक लेना चाहता है परन्तु कोई हस्तक्षेप उसको आइना दिखाकर एकदम से धरातल दिखा देता है| इसी परिपेक्ष्य में इस कविता को देखना चाहिए और जिस भाव से ये पंक्तियाँ लिखी गई हैं उसी भाव से यदि पाठक तक पहुँच जाएँ तो इन पंक्तियों का लेखन सार्थक होगा|
एक पथिक, अति वृद्ध और अत्यंत ही दुर्बल
गर्मी की दोपहर में, होकर धूप से बेकल
ढूंढ रहा था कहीं किसी तरुवर की छाया
पर उसकी नज़रों में कोई वृक्ष ना आया
होठों पर आई उसके मुस्कान की रेखा
चलते चलते बहुत दूर एक वृक्ष सा देखा
पर फ़ौरन ही खत्म हुआ उल्लास ही सारा
एक अकेला वृक्ष वो भी पतझर का मारा
मन में दुःख पैरों पर लेकर दुर्बल काया
वृद्ध थकित कदमों से पास वृक्ष के आया
टिका ताने पर पीठ वृद्ध ये बोला बानी
तरुवर तेरी मेरी बिलकुल एक कहानी
हरी पत्तियों वाला होगा वैभवशाली
जैसे मुझपर छाई थी यौवन की लाली
फल फूलों से लदा फदा तेरा तन होगा
जैसे मैंने अपना यौवन है खुद भोगा
पर अब
शक्तिहीन मैं पर्ण हीन तू एक जैसे हैं
इसीलिए तो दोनों दोस्त दोस्त जैसे है
सुनकर के ये बात वृक्ष बोला अभिमानी
तेरी मेरी नहीं कभी थी एक कहानी
सिद्धांतहीन और स्वार्थ भरा था जीवन तेरा
तूने किया सदा मेरा मेरा और मेरा
अपने फल भी छाया भी औरों को देकर
मैंने अपनी उम्र गुजारी परोपकार कर
परोपकार की महिमा तूने नहीं है जानी
इसीलिए कहता है अपनी एक कहानी
ये पतझर है देख लेना वसंत फिर आयेगा
मेरा तन फिर फल फूलों से भर जायेगा
तेरा यौवन नहीं लौटकर फिर आयेगा
तू तो वृद्धावस्था में ही मर जायेगा
दोस्त कहा है तो बात मान ले मेरी
स्वार्थ हीन बन परोपकार कर अभी भी नहीं हुई है देरी