भरत की व्यथा
घनी अंधियारी काली रात ।
सूझता नहीं हाथ को हाथ ।
घोर सन्नाटा सा है व्याप्त ।
नहीं है वायु भी पर्याप्त ।
नहीं है काबू में अब मन ।
हुआ है जब से राम गमन ।
भटकते होंगे वन और वन ।
सोंच यह व्याकुल होता मन ।
नगर से बाहर सरयू तीर ।
साधू के वेश में बैठा वीर ।
झरे नयनों से निर्झर नीर।
न जाने कोई उसकी पीर ।
न हो जब कोई कार्य विशेष ।
करे तब मन निज हिर्दय प्रवेश ।
रह रह कर उठता है आवेश ।
अभी भी एक बरस है शेष ।
सोंच मन होता वहुत अधीर ।
तोड़ मर्यादा की प्राचीर ।
कहीं नश्तर के जैसी पीर ।
न डाले मेरे उर को चीर ।
भरत जो नहीं सका पहिचान।
खून की महिमा से अनजान ।
लखन के संकट में थे प्राण ।
भरत को बना रहे निष्प्राण ।
रक्त का ऐसा है सम्बन्ध ।
बनाता है ऐसा अनुबंध।
भाई पर आये दुःख का फंद ।
भाई नहीं रह सकता निस्पंद ।
नहीं है शेष कोई भी काम ।
सतत है प्रतीक्षा अविराम ।
गए है जब से वन में राम ।
भरत कैसे पाए विश्राम ।
गगन में हुई प्रकाश की वर्ष्टि ।
थम गयी जैसे मानो श्रष्टि ।
भरत के मन ने की जब पुष्टि ।
गड़ा दी आसमान में द्रष्टि ।
कर रहा नील गगन को लाल ।
हाथ में पर्वत लिए विशाल ।
आकृति में लगता था विकराल ।
गति मानो मायाबी चाल ।
न हो भैया को कुछ नुकसान ।
आकृति को राक्षस जैसा जान ।
लक्ष्य पर लिया निशाना तान ।
भरत ने किया वाण संघान ।
लगा जब कपि को जाकर तीर ।
हुई तब उसको भीषण पीर ।
तुरंत ही मूर्क्षित हुआ शरीर ।
गिरा फिर आहत हो कर वीर ।
कहा गिरते गिरते श्री राम ।
भरत को अचरज हुआ महान ।
गए जब परिचय कपि का जान ।
कहा तब क्षमा करो हनुमान ।
लखन को लगा शक्ति का वाण ।
इसलिए संकट में है प्राण ।
हो रहा है प्रभात का भान ।
अतः अब विदा करो श्रीमान ।
भरत तब बोले हे हनुमान।
मुझे है राम चरण की आन ।
लखन तक तुरत करो प्रयाण ।
बैठ जाओ तुम मेरे वाण ।
कहा तब हाथ जोड़ हनुमान ।
हर्दय में सदा वसत है राम ।
पहुँच जाऊँगा लेकर नाम ।
राम से बड़ा राम का नाम ।
भरत ने कहा सुनो हनुमान ।
कर रहे पूर्ण राम के काम ।
आज मै भेद गया ये जान ।
भक्त के वश में क्यों भगवान् ।