मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम


 मित्रों यह कविता मैंने ओपन बुक्स ओंन  लाइन.कॉम पर चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता में लिखी थी जो अब अपने ब्लॉग के पाठकों के साथ संझां कर रहा हूँ. 

हुयी सब आशाएं जब क्षीण 
कर दिया यौवन ने प्रस्थान.
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

किया है जीवन का संचार .
किया है पूर्णतया उपचार .
मनोबल का करके उत्थान 
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

लगा जब होने शिथिल शरीर 
हुयी जब काया भी बे जान 
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

हमारे ज़र्ज़र हुये शरीर 
मगर न रहे कभी गंभीर 
हमारे दिल थे सदा जवान 
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

दिया हाथो में मेरे हाथ 
उम्र के हर पड़ाव पर साथ 
सजा कर होंठों पर मुस्कान.
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012


ज़रूरत क्या है चंदन की बागे गुलाब में .
इज़ाफ़ा इत्र से होता नहीं उनके शबाब में.
मुस्कराते हैं वो भी मुस्कराहट के ज़बाब में .
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे ज़बाब में.
नहीं है फायदा कोई भी खुश्बू मिलाने से .
सुना है एक मछली आ गयी है इस तलाब मे.
मौज़ूदगी किसी भी अज़ीज़ शक्स की.
दो प्रेमियो को लगती है हड्डी कबाब में.
इशके हकीकी का नशा लग गया जिसको .
आता नहीं उसको मज़ा साकी ओ शराब में.
मोड़ देते है तूफ़ानो को जिनके दिल में कुब्बत है.
मगर कमज़ोर बह जाते है मामूली बहाव मे.
शर्म से बात दिल की रु-ब-रु कह पाए न हमसे
छिपाया कुछ नहीं हमसे वो आये जो ख्वाब में
निकाला नुक्स है घोड़े में जिस आली जनाब ने .
नहीं सीखा है उसने पाँव भी रखना रकाब में. .
करोडो खर्च करते हो तुम जिसके रख रखाव में .
लेके आये हो तुम मुल्क को यह किस अज़ाब में.
एक मुजरिम है वो इंसा कोई पीर नहीं है .
क्यों ढूँढ़ते हो फ़रिश्ता तुम अजमल कसाब में.
नहीं झुकता है ये सर किसी भी बेजा दबाव में.
या गल्तियों से या अदब से मुर्शिद के रुआब में.
 मित्रो  यह ग़ज़ल ओपन बुक्स ओन लाइन पर तरही मुकाबले में शामिल करने के लिए लिखी थी अब इसको अपने हे ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूँ ।

ज़रूरत क्या है चंदन की बागे गुलाब में .
इज़ाफ़ा इत्र से होता नहीं उनके शबाब में.
मुस्कराते हैं वो भी मुस्कराहट के ज़बाब में .
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे ज़बाब में.
नहीं है फायदा कोई भी खुश्बू मिलाने से .
सुना है एक मछली आ गयी है इस तलाब मे.
मौज़ूदगी किसी भी अज़ीज़ शक्स की.
दो प्रेमियो को लगती है हड्डी कबाब में.
इशके हकीकी का नशा लग गया जिसको .
आता नहीं उसको मज़ा साकी ओ शराब में.
मोड़ देते है तूफ़ानो को जिनके दिल में कुब्बत है.
मगर कमज़ोर बह जाते है मामूली बहाव मे.
शर्म से बात दिल की रु-ब-रु कह पाए न हमसे
छिपाया कुछ नहीं हमसे वो आये जो ख्वाब में
निकाला नुक्स है घोड़े में जिस आली जनाब ने .
नहीं सीखा है उसने पाँव भी रखना रकाब में. .
करोडो खर्च करते हो तुम जिसके रख रखाव में .
लेके आये हो तुम मुल्क को यह किस अज़ाब में.
एक मुजरिम है वो इंसा कोई पीर नहीं है .
क्यों ढूँढ़ते हो फ़रिश्ता तुम अजमल कसाब में.
नहीं झुकता है ये सर किसी भी बेजा दबाव में.
या गल्तियों से या अदब से मुर्शिद के रुआब में.

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

भरत की व्यथा


भरत की व्यथा 
घनी अंधियारी  काली रात ।
सूझता नहीं हाथ को हाथ ।
घोर सन्नाटा सा है व्याप्त ।
नहीं है वायु भी पर्याप्त ।

नहीं है काबू में अब मन ।
हुआ है  जब से राम गमन ।
भटकते होंगे वन और वन ।
सोंच यह व्याकुल होता मन ।

नगर से बाहर सरयू तीर ।
साधू के वेश में बैठा वीर ।
झरे नयनों से निर्झर नीर।
न जाने कोई  उसकी  पीर ।

न हो जब कोई कार्य विशेष ।
करे तब मन निज हिर्दय प्रवेश ।
रह रह कर उठता है आवेश ।
अभी भी एक बरस है शेष ।

सोंच मन होता वहुत अधीर ।
तोड़ मर्यादा की प्राचीर ।
कहीं नश्तर के जैसी पीर ।
न डाले मेरे  उर को चीर ।

भरत जो नहीं सका पहिचान।
खून की महिमा से अनजान ।
लखन के संकट में थे प्राण ।
भरत को बना रहे निष्प्राण ।   

रक्त का ऐसा है सम्बन्ध ।
बनाता है ऐसा अनुबंध।
भाई पर आये दुःख का फंद ।
भाई नहीं रह सकता निस्पंद ।

नहीं है शेष कोई भी काम ।
सतत है प्रतीक्षा अविराम ।
गए है जब से वन में राम ।
भरत कैसे पाए विश्राम ।

गगन में हुई प्रकाश की वर्ष्टि ।
थम गयी जैसे मानो श्रष्टि ।
भरत के मन ने की जब पुष्टि ।
गड़ा दी आसमान में द्रष्टि ।

कर रहा नील गगन को लाल ।
हाथ में पर्वत लिए विशाल ।
आकृति में  लगता था विकराल ।
गति मानो मायाबी चाल  ।

न हो भैया को कुछ नुकसान ।
आकृति को राक्षस जैसा जान ।
लक्ष्य पर लिया निशाना तान ।
भरत ने किया वाण संघान ।

लगा जब कपि को जाकर तीर ।
हुई तब उसको भीषण पीर ।
तुरंत ही मूर्क्षित हुआ शरीर ।
गिरा फिर आहत हो कर वीर ।

कहा गिरते गिरते श्री राम ।
भरत को अचरज हुआ महान ।
गए जब परिचय कपि का जान ।
कहा तब क्षमा करो हनुमान  ।

लखन को लगा शक्ति का वाण ।
इसलिए संकट में है प्राण ।
हो रहा है प्रभात का भान ।
अतः अब विदा करो श्रीमान ।

भरत तब बोले हे हनुमान।
मुझे है राम चरण की आन ।
लखन तक तुरत करो प्रयाण ।
बैठ जाओ तुम मेरे वाण ।

कहा तब हाथ जोड़ हनुमान ।
हर्दय में सदा वसत है राम ।
पहुँच जाऊँगा लेकर नाम ।
राम से बड़ा राम का नाम ।

भरत ने कहा सुनो हनुमान ।
कर रहे पूर्ण राम के काम ।
आज मै भेद गया ये जान ।
भक्त के वश में क्यों भगवान् ।