गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

मैं और वह

प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा का श्रृंगार करना चाहिए अर्थात उसे सत्कर्मों द्वारा खुद को इस प्रकार संभारना चाहिए की जब उसका सामना ईश्वर से हो तब ईश्वर उस पर रीझ  जाए.  जिस प्रकार से  कोई प्रेमिका अपने हर कर्म से अपने प्रियतम को खुद पर मोहित कर लेती है. आध्यातिमिकता के अलावा  यह गीत सांसारिक तौर पर भी सत्य है. परन्तु यदि मेरा गुरु {श्री आशुतोष जी महाराज } इस कविता में निहित भावों पर रीझ जाये तो मजा ही आ जाये. 

रीझ गए मों पे सांवरिया सफल हुआ  श्रृंगार  सखी.
जीत गया मेरा रूप सजन से पर मैं गई दिल हार  सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

चन्दन का उबटन रंग लाया महक उठा मेरा तन मन.
पर उनकी खुशबु के आगे चन्दन भी गया  हार  सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

झूला झूल रही मधुवन में पर मन था वेचैन वहुत.
उनकी वाहों में जब झूली आया वहुत कर्रार सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

वह रूठे मैं मान गई थी वह माने मै रूठ गई. 
कितनी सुहानी लगती थी तब उनकी हर मनुहार सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

विजली चमकी डरप गई मैं गोद में उनकी सिमट गई.
फिर मत पूंछो कैसा कैसा मुझको किया है प्यार सखी. 
रीझ गए मों पे सांवरिया .



बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

तत्व

एक पूर्ण सतगुरु की पहिचान हमारे शाश्त्रों में इस श्लोक में बताई है.
अखंड मंडलाकारम व्याप्तं एन चराचरम.
तत पदम् दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
यह श्लोक बताता है की ईश्वर जो की अखंड अर्थार्त अविभाजित है और जो समस्त व्रह्मांड में व्याप्त है उसको शिष्य के अंतर्घट में साक्षात दिखाने वाला ही  एक पूर्ण सतगुरु होता है .
और ऐसा पूर्ण सतगुरु यदि किसी को मिल जाए तो  फिर वोह शिष्य गुरु के अन्दर ही सब कुछ ढून्ढ लेता है.  और जब ऐसा ही एक पूर्ण सतगुरु मुझे मिला तो मैंने यह गीत 'भजन या कविता की रचना की जो की मेरे उन्ही  पूर्ण सतगुरु
श्री आशुतोष जी महाराज जी के पावन चरणों में समर्पित है.

तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

जीवन का संगीत सुनाती
साँसों की झंकार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

शब्द तुम्ही निशब्द तुम्हीं हो
अनहद का आधार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

ढून्ढ रहा था मै तुमको अपनी सोंचों के जंगल में.
अंतर्मन में मिलने वाले ज्योति पुंज अंगार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

युगों -युगों से तृषित है यह दिल
अमृत की रस धार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .







मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

मुझको निर्भय कर देना व्यक्ति जब भी अपनी मृत्य से डरता है तो उसकी यही लालसा होती है की वोह मौत से डर न जाये . इन्ही भावों को व्यक्त्त करती है यह कविता

हे म्रत्यु देव आने से पहले मुझको  निर्भय कर देना . 
संताप मिटा देना मेरा अंतस को निर्मल कर देना. 

कर देना तुम विरक्त मुझको सारी सांसारिक वातों से. 
कर देना मोह भंग मेरा दुनिया के रिश्ते नातों से. 
फिर इस धरती से स्वर्ग लोक तक पथ निष्कंटक कर देना
संताप मिटा देना मेरा अंतस को निर्मल कर देना. 
हे म्रत्यु देव आने से पहले मुझको  निर्भय कर देना . 

मैं पीड़ा से घबराता हूँ कर देना संज्ञा हीन मुझे.
मैं अपनों  मे घिर जाता हूँ लेना अपनों से छीन मुझे.
तन शांत रहे मन  शांत रहे ऐसा प्रबंध कुछ कर देना.
संताप मिटा देना मेरा अंतस को निर्मल कर देना. 
हे म्रत्यु देव आने से पहले मुझको  निर्भय कर देना .