शनिवार, 31 दिसंबर 2011

बीत यह भी साल गया

बीत यह  भी साल गया 


जिंदगी की पुस्तक से पृष्ठ कुछ निकाल गया |
करके कंगाल हमे बीत यह भी साल गया ||


भूपेन्द्र हजारिका जगजीत हमे बहुत प्यारे थे |
देवानंद और शम्मी देश के दुलारे थे ||
उनको बड़ी क्रूरता से आज निगल काल गया |
करके कंगाल हमे बीत यह भी साल गया ||


भृष्टाचार ख़त्म हो यह मन में सव विचारे है |
एक अन्ना काफी था यह तो फिर हजारे है ||
करने को पारित बिल देके लोक पाल गया |
देके जिम्मेदारी हमे बीत यह भी साल गया ||


आतंकवाद फ़ैलाने को लादेन काफी था |
एक तानाशाह नाम जिसका गद्दाफी था ||
उनसे मुक्त करके बीत काल यह कराल गया |
करके खुशहॉल हमे बीत यह भी साल गया ||


जिंदगी की झोली में सौगातें डाल गया ||
करके खुशहाल हमे बीत यह भी साल गया ||
धोनी की टीम ने कमाल एक कर डाला |
किर्केट की दुनिया में इतिहास रच डाला ||
विश्व कप दिला के हमे करके मालामाल गया |

करके खुशहॉल हमे बीत यह भी साल गया ||

गलतियों से ले के सबक भूल को न दोहराए |
आने वाले साल में हम हर ख़ुशी को पा जाये ||
देके आशीष हमे बन यह भूत काल गया ||
२०११ का बीत आज साल गया ||






शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

ग़ज़ल

न मंदिर से न मस्जिद से न कशी से मदीने से
जो सुख मिलता है मुझको लग के अपनी माँ के सीने से

हज़ारों फूल मिलकर भी वो खुशबू पा नहीं सकते
महक उठती है जो मज़दूर के बहते पसीने से

अगर हो सामने मंजिल तो इसमें शक नहीं यारों
संवर जाते हैं पल में काम अटके हों महीने से

जिसे खुद पर यकीं हो वो हे मेरे संग शामिल हो
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफिने से

जो पत्थर धुल में लिथड़े ठोकरे खाते ही रहते थे
वाही उसने लगा डाले इमारत में नगीने से


मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

एक बार बिष पान किया तो नील कंठ कहलाया .

एक बार बिष पान किया तो नील कंठ कहलाया .
रोज़ पिए इंसान जहर पर कोई समझ न पाया .

कितने ही अपमान के बिष घट पीना पड़ता है.
जीने की जब चाह नहीं तब जीना पड़ता है.
तिरस्कार का कितना ही विष हमने रोज़ पचाया.
एक बार बिष पान किया तो नील कंठ कहलाया .
रोज़ पिए इंसान जहर पर कोई समझ न पाया .

पेट की भूख मिटाने को अबलाये लुटती  है.
दूध पिलाने की खातिर माताए बिकती है.
आकर देख जरा धरती पर कितना जहर समाया .
एक बार बिष पान किया तो नील कंठ कहलाया .
रोज़ पिए इंसान जहर पर कोई समझ न पाया .

एक बार प्रभु इन्सान बन कर धरती पर आ जाओ .
थोडा सा विषपान करो कुछ तो अमृत वरसाओ .
दुःख से भरी तेरी धरती पर विष ही विष है समाया .
एक बार बिष पान किया तो नील कंठ कहलाया .
रोज़ पिए इंसान जहर पर कोई समझ न पाया .








 


बुधवार, 7 दिसंबर 2011

अंतर्घट एक परिचय

अंतर्घट एक परिचय  :- अंतर्घट का अर्थ (अंतर+घट) मतलब  शरीर के भीतर वोह स्थान जहाँ ईश्वर का निवास स्थान है. इस विषय में सभी धर्म एक  मत है की जिस ईश्वर को हम मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा या गिरजा घर में ढूँढ़ते है वोह भगवान् हमारे ही भीतर अर्थात अंतर्घट में है . और अंतर्घट में वोह किस प्रकार मिलेगा. या उसको पाने के लिए हमे क्या करना होगा इसको शाश्त्रों के आधार पर मै व्याख्या करने की कोशिश अपने गुरु की कृपा से करूँगा .इस सन्दर्भ में मै अपने शीश को अपने उन्ही सतगुरु सर्ब श्री आशुतोष जी महाराज के पावन चरणों में रखते हुए  मै प्रार्थना करता हूँ की वे अपनी  कृपा मुझ पर निरंतर वनाये रखे.

हमारे शाश्त्र ग्रुन्थ कहते है की ईश्वर किसी जीव पर तीन प्रकार की कृपा करता है . किसी जीव को मनुष्य जनम देकर वोह पहली कृपा करता है. इस विषय में संत तुलसी दास जी कहते है की
 बड़े भाग मानुष तन पावा .सुर दुर्लभ सब ग्रुन्थं गावा
इश्वर धाम मोक्ष कर द्वारा .पाई ना जे जन उतारी पारा ,
ते परित्रण क्ल्पई सर धुन धुन पछताई. काल्हि कर्मही ईश्वरही मिथ्या दोष लगाही .
अर्थात मनुष्य तन दुर्लभ है और मोक्ष का द्ववार भी है और जो इस तन को पाकर भी इश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर नहीं होता उसे अंत समय में पछताना पड़ता है और वोह कभी भगवान् को कभी कभी समय को दोषारोपण करता है. मगर दुर्लभ होते हुए भी यह जीवन क्षण भंगुर भी है. कबीर दास कहते है की
पानी कर बुदबुदा अस मानस की जात. देखत ही छिप जायेगा ज्यों तारा प्रभात.
     ईश्वरकिसी जीव पर दूसरी कृपा यह करता है की मानव के जीवन में किसी संत का पदार्पण हो जाये. क्यों की  ईश्वर की प्राप्ति विना पूर्ण सतगुरु के नहीं हो सकती है. तुलसी दास जी के शब्दों में.
            राम सिन्धु सज्जन घन धीरा. चन्दन तरु प्रभु संत समीरा
अर्थात जिस प्रकार समुन्द्र के खारे पानी को वादल पीने योग्य निर्मल वनात है एवं चन्दन की खुशबू को हवा नासिका द्वारा घ्रण करने योग्य वनाती है उसी प्रकार पूर्ण सतगुरु  ईश्वर के तेज़ को हमे दिखलाता है शब्दों पर गौर करे दिखलाता है . और हमे हमारे अंतर्घट में परम पिता परमात्मा का दर्शन करवाता है. इस विषय में गीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते है की
             ना तू माम शक्य से द्रुष्ट मनु नैव स्व- चक्षु सा दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्य्मे योग ऐश्वर्या.
हे अर्जुन तू मुझे अपने भौतिक नेत्रों से नहीं देख सकता है मै तुझे दिव्या नेत्र प्रदान करता हूँ फिर तू मेरे अलौलिक दिव्य रूप का दर्शन कर सकेगा .  और जब कृष्ण ने उसे दिव्या नेत्र प्रदान किया तो उसने कहा की हे प्रभु मै अपने दिव्य नेत्रों से करोडो सूर्यों का प्रकाश देख रहा हूँ अर्थात हमे समझना चाहिए की इश्वर प्रकाश रूप में रहता है. हमारे तथा अन्य सभी धर्मों में इश्वर को प्रकाश रूप वताया है.
जैसे वाइविल के अनुसार GOD IS LIGHT कुरआन के हिसाब से नूर अल्लाह नूर का मतलब तेज़ या प्रकाश होता है सिख धर्म के अनुसार भी प्रकाश उत्सव मनाया जाता है चर्च में मंदिर में गुरूद्वारे में सभी जगह प्रकाश के प्रतीक में ज्योति जलाई जाती है और यही प्रकाश जब पूर्ण सतगुरु किसी को दिखाता है तो फिर वोह व्यक्ति  इश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता है और यही अंतर्घट है जो की मेरे ब्लॉग का नाम है और आगे चल कर यह नाम सार्थक होता जायेगा ऐसी आशा मै इस आधार पर करता हूँ की श्री गुरु चरण सरोज रज निज मन मुक्कुर सुधार . अर्थात मैं अपने गुरु सर्व श्री आशुतोष जी महाराज के चरणों की धूल से अपने मन रुपी दर्पण को साफ़ करके जैसी उनकी इच्छा होगी उसी प्रकार से इस ब्लॉग को आगे वड़आउंगा .

                                                                                                              धन्यवाद
                                                                                                                 आपका मुकेश 


शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

अजन्मी कहे माँ से



माँ मंदिर में देवी माँ की आरती गा रही है कि पूत कपूत सुने बहुतेरे माँ न सुनी कुमाता. उसकी अजन्मी बच्ची गर्भ में ही जिसे इस बात का अहसास हो गया है कि उसकी माँ गर्भपात करबाना चाहती है तो वोह अपनी hi माँ से अपनी जान कि भीख निम्न शब्दों में मांगती है.

माँ बेटी का है इस जग में है बड़ा ही निर्मल नाता.
पूत कपूत सुने बहुतेरे माँ न सुनी कुमाता. 

ये बोल आरती के जब मेरे कानो से टकराए थे .
सच कहती हूँ मेरी जननी मेरे मन को अति भाये थे. 

पर नहीं जानती थी माँ कि यह आरती भी झूठी है. 
या फिर तू ही दुनिया कि सब माताओं में अनूठी है.
जिस घडी चिकित्सक से तुने था गर्भ परिक्षण करबाया था.
है गर्भ में तेरे एक कन्या उसने तुझको अबगत करबाया था.
मैं नहीं जानती थी कि तू भी मेरे दुश्मन बन जायेगी.
परिवार जनों के भय से माँ तू गर्भपात करबायेगी.
जीने दे मुझको भी कुछ दिन तू इतनी क्रूर न बन  माता.
 पूत कपूत सुने बहुतेरे माँ न सुनी कुमाता.

अब ही तो तेरे गर्भ में मैंने कोमल पाँव पसारे हैं. 
अब ही तो मेरी काया  में ईश्वर ने प्राण संचारे है. 
है अन्धकारमय गर्भ तेरा इसमें मेरा दम घुटता है.
बाहर आने कि आशा में मेरा एक एक पल कटता है.
क्या कफ़न मेरा  मैया तेरी आँचल बन जायेगी
क्या गर्भ स्थली  तेरी माँ म्र्त्युस्थल बन जायेगी.
इतना सुन्दर संसार है यह  इसमें आकर मै भी कुछ दिन 
जी लेती तो तेरा क्या जाता.
पूत कपूत सुने बहुतेरे माँ न सुनी कुमाता.

फिर कौन कहेगा माँ के चरणों में ही स्वर्ग है मिल जाता है.
जीवन कि कड़ी धुप में माँ कि ममता ही छाया है माता.
कर जोड़ के मै करती विनती हे माँ तू न बन कुमाता.
पूत कपूत सुने बहुतेरे माँ न सुनी कुमाता. 

हिंदी गीत.    

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

मैं और वह

प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा का श्रृंगार करना चाहिए अर्थात उसे सत्कर्मों द्वारा खुद को इस प्रकार संभारना चाहिए की जब उसका सामना ईश्वर से हो तब ईश्वर उस पर रीझ  जाए.  जिस प्रकार से  कोई प्रेमिका अपने हर कर्म से अपने प्रियतम को खुद पर मोहित कर लेती है. आध्यातिमिकता के अलावा  यह गीत सांसारिक तौर पर भी सत्य है. परन्तु यदि मेरा गुरु {श्री आशुतोष जी महाराज } इस कविता में निहित भावों पर रीझ जाये तो मजा ही आ जाये. 

रीझ गए मों पे सांवरिया सफल हुआ  श्रृंगार  सखी.
जीत गया मेरा रूप सजन से पर मैं गई दिल हार  सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

चन्दन का उबटन रंग लाया महक उठा मेरा तन मन.
पर उनकी खुशबु के आगे चन्दन भी गया  हार  सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

झूला झूल रही मधुवन में पर मन था वेचैन वहुत.
उनकी वाहों में जब झूली आया वहुत कर्रार सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

वह रूठे मैं मान गई थी वह माने मै रूठ गई. 
कितनी सुहानी लगती थी तब उनकी हर मनुहार सखी.
रीझ गए मों पे सांवरिया .

विजली चमकी डरप गई मैं गोद में उनकी सिमट गई.
फिर मत पूंछो कैसा कैसा मुझको किया है प्यार सखी. 
रीझ गए मों पे सांवरिया .



बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

तत्व

एक पूर्ण सतगुरु की पहिचान हमारे शाश्त्रों में इस श्लोक में बताई है.
अखंड मंडलाकारम व्याप्तं एन चराचरम.
तत पदम् दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
यह श्लोक बताता है की ईश्वर जो की अखंड अर्थार्त अविभाजित है और जो समस्त व्रह्मांड में व्याप्त है उसको शिष्य के अंतर्घट में साक्षात दिखाने वाला ही  एक पूर्ण सतगुरु होता है .
और ऐसा पूर्ण सतगुरु यदि किसी को मिल जाए तो  फिर वोह शिष्य गुरु के अन्दर ही सब कुछ ढून्ढ लेता है.  और जब ऐसा ही एक पूर्ण सतगुरु मुझे मिला तो मैंने यह गीत 'भजन या कविता की रचना की जो की मेरे उन्ही  पूर्ण सतगुरु
श्री आशुतोष जी महाराज जी के पावन चरणों में समर्पित है.

तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

जीवन का संगीत सुनाती
साँसों की झंकार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

शब्द तुम्ही निशब्द तुम्हीं हो
अनहद का आधार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

ढून्ढ रहा था मै तुमको अपनी सोंचों के जंगल में.
अंतर्मन में मिलने वाले ज्योति पुंज अंगार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .

युगों -युगों से तृषित है यह दिल
अमृत की रस धार तुम्ही हो .
तत्व तुम्ही हो सार तुम्ही हो .







मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

मुझको निर्भय कर देना व्यक्ति जब भी अपनी मृत्य से डरता है तो उसकी यही लालसा होती है की वोह मौत से डर न जाये . इन्ही भावों को व्यक्त्त करती है यह कविता

हे म्रत्यु देव आने से पहले मुझको  निर्भय कर देना . 
संताप मिटा देना मेरा अंतस को निर्मल कर देना. 

कर देना तुम विरक्त मुझको सारी सांसारिक वातों से. 
कर देना मोह भंग मेरा दुनिया के रिश्ते नातों से. 
फिर इस धरती से स्वर्ग लोक तक पथ निष्कंटक कर देना
संताप मिटा देना मेरा अंतस को निर्मल कर देना. 
हे म्रत्यु देव आने से पहले मुझको  निर्भय कर देना . 

मैं पीड़ा से घबराता हूँ कर देना संज्ञा हीन मुझे.
मैं अपनों  मे घिर जाता हूँ लेना अपनों से छीन मुझे.
तन शांत रहे मन  शांत रहे ऐसा प्रबंध कुछ कर देना.
संताप मिटा देना मेरा अंतस को निर्मल कर देना. 
हे म्रत्यु देव आने से पहले मुझको  निर्भय कर देना .






शनिवार, 24 सितंबर 2011

a four moth old child wept bitterly he told to his mother very clearly. That i am the only hope in your life. So always give me brive. A bottle ful milk thrice in a day. To keep me happy is the only way. Fill my face with lovely kisses. then i will be happy & i will play. T I will smile with all the joys. If my daddy comes with lot of toys. If he doesnt i will weep. I will let neither of you sleep. Please tell my daddy very clearly. That i will continue to weep bitterly.

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

विरह गीत (इस गीत को कई साल पहले मैंने खुद जब अपनी पत्नी से जुदा था तब महसूस किया था और मैं समझता हूँ की इस विरह या वियोग को हम सभी महसूस कभी ना कभी करते ही हैं. इसी संदर्भ में इस गीत को पड़ेंगे तो अच्छा लगेगा )

आज वहि रिमझिम सावन है काले काले वादल हैं .
लेकिन साजन पास नहीं तो, बे मतलब यह वादल हैं.

प्यासी  अखियाँ चौंक रही हैं कदमो की हर आहट पे .
ना जाने तुम कब आ जाओ मेरे घर की चोखट पे .
इसी आस में जाग रही हूँ अखियाँ नींद से वोझल हैं.
लेकिन साजन पास नहीं तो, बे मतलब यह वादल हैं.

खुद को खूब सजाती हूँ मैं, करती हुं सोलह श्रृंगार.
प्रियतम के स्वागत को प्रतिपल रहती हुं  हर पल तैयार.
पलकों से घर साफ़ किया है, और सजाया आँचल है.
लेकिन साजन पास नहीं तो, बे मतलब यह वादल हैं.

पिछले सावन में मिल जुल कर करते थे हुं नादानी.
कितने सुहाने लगते थे तब वादल बिजली वारिश पानी .
आज उन्ही. यादों में खोया मन वेकल तन व्याकुल है .
लेकिन साजन पास नहीं तो, बे मतलब यह वादल हैं.

क्या तुमको भी याद आती हैं अपने प्यार की सब वातें.
तुमको भी क्या तडपाती हैं विरह की लम्बी रातें .
या फिर केवल हम हि तेरे प्यार में इतने पागल हैं .

आज वहि रिमझिम सावन है काले काले वादल हैं .
लेकिन साजन पास नहीं तो, बे मतलब यह वादल हैं.




बुधवार, 7 सितंबर 2011

बूँदइस कविता में बूँद आत्मा है सागर परमात्मा है और वादल वह पूर्ण सतगुरु है जो आत्मा को परम आत्मा यानी भगवान् से मिला देता है.

नील गगन को छूने की चाहं में एक बूँद ,
सागर की गोद से तोड़ के नाता संग पवन के वह गई .
करुना का सागर बुलाता ही रह गया वह बूँद, हंस के अदा से
खिलखिला के रह गई. एक बूँद........

पवन की नाजुक छुंअन  ने बूँद के कोमल बदन पे
एक जादू सा कर दिया मस्त कर डाला सिरहन ने .
मिलन की आस में पवन के पाश में ,
वह बूँद सिमट के रह गई.
एक बूँद....
पर तभी सूरज निकला वक्त हाथ्हों से निकला ,
बूँद का सुख तो यारों बड़ा छर भंगुर निकला  .
सूरज के ताप में बदली वह भ्हाप में.
वह बूँद झुलस के रह गई.
एक बूँद.
एक रहम दिल बादल ने बूँद को हवा से खींचा ,
अपने दामन में समेटा और ममता से सींचा.
उड़ के वह वादल आया, नदी के ऊपर छाया .
बूँद को  उसने प्यार से नदी पे जा बरसाया  .
ख़ुशी की  तरंग में मिलन की उमंग में
वह संग नदी के वह गई
एक बूँद.....
पत्थरों से टकराई भंवर में चक्कर खाई
न  उसने हिम्मत खोई तनिक  भी न घबराई .
कई जीवों की प्यास से कठिनता से बच पाई
मगर चलती ही रही वह कहीं न रुकने पाई.
इतने में सागर आया बूँद का मन हर्षाया
बूँद ने अपने आप को सागर से था मिलाया .
बूँद बूँद अब नहीं रही वह सागर वन के रह गई ,
एक बूँद ..........

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

दुत्कार

एक रोटी का छोटा टुकड़ा जब दिल चाहा  तब डाल दिया . 
इस पर भी मैंने  खुश होकर वोह जब आया सत्कार किया .
मैं फिर भी नहीं समझ पाया की उसने क्यों दुत्कार दिया . 

उसके बच्चे मुझको प्यारे वे मोती हैं मैं धागा  हूँ .
मैं उनकी गेंद उठाने को दूर दूर तक भागा हूँ. 
वे मेरे संग दिन भर खेले मैंने भी उनको प्यार दिया .
मैं अब तक नहीं समझ  पाया कि  उसने क्यों दुत्कार दिया.

घर में मेरी कोई जगह नहीं इससे है मुझे इंकार नहीं. 
वोह मुझे बांध कर रखता है इस पर भी मुझे ऐतराज नहीं. 
मैं झूम कर पूंछ उठाता हूँ उसने जब भी पुचकार दिया.
मैं फिर भी नहीं समझ पाया की उसने क्यों दुत्कार दिया .

उसके घर कि रखवाली  को मैं शूर  वीर वन जाता हूँ. 
चोरों से और उच्हकों से काल सामान भीड़ जाता हूँ.
वोह सुख कि नींद सदा सोया मैं जग कर रात गुजार दिया.   
मैं फिर भी नहीं समझ पाया की उसने क्यों दुत्कार दिया .

इक दिन तो उसने पास बुला कर मुझको भ्रम में डाल दिया.
मैंने भी अपनी पलक मूँद कर सर चरणों में डाल दिया .
कुछ देर तो उसने प्यार क्या फिर एक लात क्यों मार दिया.
मैं फिर भी नहीं समझ पाया की उसने क्यों दुत्कार दिया .

शनिवार, 21 मई 2011

शब्द

व्यथित मन की खिडकियों को खोलकर|
शब्द व्याकुल हैं निकलने के लिए||

पहले थोडा झिझक कर फिर ठिठक कर|
आ गए बाहर अचानक छिटक कर||
फिर भी थोड़े से बचे जो रह गए|
मन के आंसू शब्द सारे बह गए||
झांकते हैं सींखचों से आँख की|
बच गए आंसू जो जलने के लिए||

दिल के संग जब तक रहे स्वच्छंद थे|
कर लिया फिर कैद उनको बुद्धि ने||
सभ्यता में बध के तो बेचैन थे पर|
दे दिया उनको सहारा सद्बुद्धि ने||
मन में फिर शालीनता से छिप गए| 
जो तडपते थे मचलने के लिए||

जब मैं बालक था बहुत नादान  था|
शब्द नटखट थे बड़े ही चुलबुले थे||
था जवानी में ना स्थिर मन मेरा|
शब्द मानव पानी में उठते बुलबुले थे||
खुद ही कहता खुद ही मैं आतुर था रहता|
अर्थ अपने ही बदलने के लिए||

पर नहीं अभिव्यक्ति जो पा जायेंगे|
मत समझना घुट के वह मर जायेंगे||
एक जुट होकर वो बाहर आयेंगे|
जब सहारा कलम का पा जायेंगे||
बन के कविता फिर विचरने के लिए|||

शनिवार, 14 मई 2011

वृद्ध और वृक्ष

यह कविता अब से १० वर्ष पूर्व मैंने इस प्रेरणा के साथ लिखी है कि मानव अपने थोड़े से सुकृत्य का बखान कर अपनी तमाम बुराइयों को उसके अंदर ढँक लेना चाहता है परन्तु कोई हस्तक्षेप उसको आइना दिखाकर एकदम से धरातल दिखा देता है| इसी परिपेक्ष्य में इस कविता को देखना चाहिए और जिस भाव से ये पंक्तियाँ लिखी गई हैं उसी भाव से यदि पाठक तक पहुँच जाएँ तो इन पंक्तियों का लेखन सार्थक होगा|


एक पथिक, अति वृद्ध और अत्यंत ही दुर्बल
गर्मी की दोपहर में, होकर धूप से बेकल

ढूंढ रहा था कहीं किसी तरुवर की छाया
पर उसकी नज़रों में कोई वृक्ष ना आया

होठों पर आई उसके मुस्कान की रेखा
चलते चलते बहुत दूर एक वृक्ष सा देखा

पर फ़ौरन ही खत्म हुआ उल्लास ही सारा
एक अकेला वृक्ष वो भी  पतझर का मारा

मन में दुःख पैरों पर लेकर दुर्बल काया
वृद्ध थकित कदमों से पास वृक्ष के आया

टिका ताने पर पीठ वृद्ध ये बोला बानी
तरुवर तेरी मेरी बिलकुल एक कहानी

हरी पत्तियों वाला होगा वैभवशाली
जैसे मुझपर छाई थी यौवन की लाली

फल फूलों से लदा फदा तेरा तन होगा
जैसे मैंने अपना यौवन है खुद भोगा

पर अब

शक्तिहीन मैं पर्ण हीन तू एक जैसे हैं
इसीलिए तो दोनों दोस्त दोस्त जैसे है

सुनकर के ये बात वृक्ष बोला अभिमानी
तेरी मेरी नहीं कभी थी एक कहानी

सिद्धांतहीन और स्वार्थ भरा था जीवन तेरा
तूने किया सदा मेरा मेरा और मेरा

अपने फल भी छाया भी औरों को देकर
मैंने अपनी उम्र गुजारी परोपकार कर

परोपकार की महिमा तूने नहीं है जानी
इसीलिए कहता है अपनी एक कहानी

ये पतझर है देख लेना वसंत फिर आयेगा
मेरा तन फिर फल फूलों से भर जायेगा

तेरा यौवन नहीं लौटकर फिर आयेगा
तू तो वृद्धावस्था में ही मर जायेगा

दोस्त कहा है तो बात मान ले मेरी
स्वार्थ हीन बन परोपकार कर अभी भी नहीं हुई है देरी