बुधवार, 7 सितंबर 2011

बूँदइस कविता में बूँद आत्मा है सागर परमात्मा है और वादल वह पूर्ण सतगुरु है जो आत्मा को परम आत्मा यानी भगवान् से मिला देता है.

नील गगन को छूने की चाहं में एक बूँद ,
सागर की गोद से तोड़ के नाता संग पवन के वह गई .
करुना का सागर बुलाता ही रह गया वह बूँद, हंस के अदा से
खिलखिला के रह गई. एक बूँद........

पवन की नाजुक छुंअन  ने बूँद के कोमल बदन पे
एक जादू सा कर दिया मस्त कर डाला सिरहन ने .
मिलन की आस में पवन के पाश में ,
वह बूँद सिमट के रह गई.
एक बूँद....
पर तभी सूरज निकला वक्त हाथ्हों से निकला ,
बूँद का सुख तो यारों बड़ा छर भंगुर निकला  .
सूरज के ताप में बदली वह भ्हाप में.
वह बूँद झुलस के रह गई.
एक बूँद.
एक रहम दिल बादल ने बूँद को हवा से खींचा ,
अपने दामन में समेटा और ममता से सींचा.
उड़ के वह वादल आया, नदी के ऊपर छाया .
बूँद को  उसने प्यार से नदी पे जा बरसाया  .
ख़ुशी की  तरंग में मिलन की उमंग में
वह संग नदी के वह गई
एक बूँद.....
पत्थरों से टकराई भंवर में चक्कर खाई
न  उसने हिम्मत खोई तनिक  भी न घबराई .
कई जीवों की प्यास से कठिनता से बच पाई
मगर चलती ही रही वह कहीं न रुकने पाई.
इतने में सागर आया बूँद का मन हर्षाया
बूँद ने अपने आप को सागर से था मिलाया .
बूँद बूँद अब नहीं रही वह सागर वन के रह गई ,
एक बूँद ..........

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