शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

जिस धरती पर जन्म लिया है .

दोस्तों एक दृश्य और उस पर लिखे अपने एक गीत को आप के साथ बाँटना चाहता हूँ।

इस गीत में तीन दृश्य है । प्रथम दृश्य में भारत पाक युद्ध की घोंष्णा हो चुकी है और सभी फौजी जो छुटटी पर है वापस बुला लिए जाते हैं और एक फौजी अपने घर का कूंच कर रहा है वोह अपने गाँव की टुकड़ी में मिल जाता है और सब मिल कर गाते हुए मार्च कर रहे है और अपनी मंजिल की तरफ बड़ रहे है ।

दुसरे दृश्य में एक माँ अपने बेटे से बचन लेती है की वोह सिर्फ जीत कर ही वापस आये नहीं तो युद्ध भूमि में ही जान देदे ।  तीसरे दृश्य में एक पत्नी अपने पति कहती है की वोह अपनी पायल के सारे घूंगरू निकाल कर फेंक देगी ताकि उसका पति आकर्षित  होकर वापस न आ जाए . अंत में वोह फौजी अपनी पत्नी को वचन कहता है वोह सर्वदा अपने देश के प्रति वफादार रहेगा। अब गीत प्रस्तुत है कृपया दृश्य को ध्यान में रख कर ही गीत को पड़ें। जय हिंद । जय भारत ।

जिस धरती पर जन्म लिया है ।
पल कर हुए जवान ।
आज उसी धरती की खातिर ,  
कर दो जान कुर्बान ।
आज ली है कसम ,
हमने मेरे वतन ,
दुश्मनों को जहाँ से मिटाने की ।
याद दुनिया को सारी दिला देंगे हम ।
फिर सुभाष और भगत के जमाने की ।

माँ ,बहिन, भाई, पत्नी सभी छोड़ के ।
जा रहा हूँ मै  दुनिया से मुह मोड़ के ।
रोके अपने कदम किस्मे इतना है दम --2
दिल में ठानी है मंजिल को पाने की ।
आज ली है कसम।

जा रहे हो तो जाओ --2
याद रखना मगर 
दूध माँ का कभी तुम लजाना न ।--2
जान दे देना सरहद पे मर जाना तुम,
हार कर मुह मुझे तुम दिखाना न ।
सिर्फ मेरी  नहीं तुम् पे नज़रें टिकी ।
आज भारत के सर को उठाने की ।
आज ली है कसम।

मेरी पायल है बिन घुघरू की ।--2
मै  चूड़ी न खनकाउंगी ।--2
जो रूप बने पग की बेडी --2
उस रूप को आग लागाउंगी ।
मेरी पायल है बिन घुघरू की ।
वुजदिल  की बीबी न बनूँगी ,
दे दूंगी मै  जान ।
एक शहीद की बेवा कहलाने ,
में है मेरी शान ।
मेरे लहु का हर एक कतरा है अब देश के नाम ।
पहले देश की शान बनुगा ,
पीछे तेरी जान ।


आज ली हमने कसम ,
हमने मेरे वतन ,
दुश्मनों को जहाँ से मिटाने की ।
याद दुनिया को सारी दिला देंगे हम ।
फिर सुभाष और भगत के जमाने की ।










राम या राम चन्द्र


दोस्तों
 
 चाँद को भगवान् राम से यह शिकायत है की दीपवली का त्यौहार अमावस की रात में मनाया जाता है और क्योंकि अमावस की रात में चाँद निकलता ही नहीं है इसलिए वोह कभी भी दीपावली मन नहीं सकता। यह एक मधुर कल्पना है की चाँद किस प्रकार खुद को राम के हर कार्य से जोड़ लेता है और फिर राम से शिकायत करता है और राम भी उस की बात से सहमत हो कर उसे वरदान दे बैठते है आइये देखते है

राम या राम चन्द्र
 जब चाँद का धीरज छुट गया
वह रघुनन्दन से रूठ गया
बोला रात को आलोकित हम ही ने करा है
स्वयं शिव ने हमें अपने  सिर पे धरा है

तुमने भी तो उपयोग किया हमारा है
हमारी ही चांदनी में सिया को निहारा है
सीता के रूप को हम ही ने सँभारा  है
चाँद के तुल्य उनका मुखड़ा निखारा है

जिस वक़्त याद में सीता की ,
तुम चुपके -चुपके रोते थे
उस वक़्त  तुम्हारे संग में बस ,
हम ही जागते होते थे

संजीवनी लाऊंगा ,
लखन को बचाऊंगा ,.
हनुमान ने तुम्हे कर तो दिया आश्वश्त
मगर अपनी चांदनी बिखरा कर,
मार्ग मैंने ही किया था प्रशस्त
तुमने हनुमान को गले से लगाया
मगर हमारा कहीं नाम भी आया

रावण की म्रत्यु से  मै भी प्रसन्न था
तुम्हारी विजय से प्रफुल्लित मन था
मैंने भी आकाश से था प्रथ्वी पर झाँका
गगन के सितारों को करीने से टांका

सभी ने तुम्हारा विजयोत्सव मनाया।
सारे नगर को दुल्हन सा सजाया
इस अवसर पर तुमने सभी को बुलाया
बताओ मुझे फिर क्यों तुमने भुलाया
क्यों तुमने अपना विजयोत्सव
 अमावस्या की रात को मनाया

अगर तुम अपना उत्सव किसी और दिन मानते
आधे अधूरे ही सही हम भी शामिल हो जाते
मुझे सताते है , चिड़ाते है लोग
आज भी दिवाली अमावस में ही मानते है लोग

तो राम ने कहा, क्यों व्यर्थ में घबराता है ?
जो कुछ खोता है वही तो पाता है
जा तुझे अब लोग सतायेंगे
आज के सब तेरा मान ही बढाएंगे
जो मुझे राम कहते थे वही ,
आज से रामचंद्र कह कर बुलायेंगे

शनिवार, 9 जून 2012

मानव तू बिछाए शूल

धरती पर पड़े  कुदाल  धरा दे  सुन्दर हरी फसल.
वृक्षों की काटो डाल वृक्ष  दे  मिठे मिठे  फल .
मानव तू बिछाए शूल-शूल तेरा  जीना हुआ विफल .
कल कल करती नदिया देखो बहती  जाये रे।
पथिकों की प्यास बुझाये.
जितना भी है पास में उसके सबका सब दे डाला ,
पिया न खुद एक बूँद त्याग का ऐसा नियम निकाला .
मानव तू बिछाए  शूल तेरा  जीना हुआ विफल .

तू सुधि न धरे , कितनी विपदा सही है माँ ने
क्या क्या कष्ट सहे तू क्यू सुधि न धरे.
न जाने कितने दुःख सह कर माँ ने तुझको पाला ,
बड़ा हुआ जब ताक़त  पाकर घर से  उसे निकाला .
मानव तू कर मत भूल वक़्त हाथों से जाये फिसल .
   


मंदिर मस्जिद जाये मंदिर मस्जिद जाये .
राम राम रटता फिरता है राम कहां से पाए .
कोई सतगुरु ढून्ढ ले जो घट में राम दिखाए .
मानव तू सुन ले बात तभी तेरा जीना है सफल .
 मानव तू विछाए शूल-शूल तेरा  जीना हुआ विफल

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम


 मित्रों यह कविता मैंने ओपन बुक्स ओंन  लाइन.कॉम पर चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता में लिखी थी जो अब अपने ब्लॉग के पाठकों के साथ संझां कर रहा हूँ. 

हुयी सब आशाएं जब क्षीण 
कर दिया यौवन ने प्रस्थान.
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

किया है जीवन का संचार .
किया है पूर्णतया उपचार .
मनोबल का करके उत्थान 
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

लगा जब होने शिथिल शरीर 
हुयी जब काया भी बे जान 
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

हमारे ज़र्ज़र हुये शरीर 
मगर न रहे कभी गंभीर 
हमारे दिल थे सदा जवान 
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

दिया हाथो में मेरे हाथ 
उम्र के हर पड़ाव पर साथ 
सजा कर होंठों पर मुस्कान.
तुम्हारे चुम्बन ने प्रियतम 
दिए है फूंक ह्र्दय में प्राण.

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012


ज़रूरत क्या है चंदन की बागे गुलाब में .
इज़ाफ़ा इत्र से होता नहीं उनके शबाब में.
मुस्कराते हैं वो भी मुस्कराहट के ज़बाब में .
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे ज़बाब में.
नहीं है फायदा कोई भी खुश्बू मिलाने से .
सुना है एक मछली आ गयी है इस तलाब मे.
मौज़ूदगी किसी भी अज़ीज़ शक्स की.
दो प्रेमियो को लगती है हड्डी कबाब में.
इशके हकीकी का नशा लग गया जिसको .
आता नहीं उसको मज़ा साकी ओ शराब में.
मोड़ देते है तूफ़ानो को जिनके दिल में कुब्बत है.
मगर कमज़ोर बह जाते है मामूली बहाव मे.
शर्म से बात दिल की रु-ब-रु कह पाए न हमसे
छिपाया कुछ नहीं हमसे वो आये जो ख्वाब में
निकाला नुक्स है घोड़े में जिस आली जनाब ने .
नहीं सीखा है उसने पाँव भी रखना रकाब में. .
करोडो खर्च करते हो तुम जिसके रख रखाव में .
लेके आये हो तुम मुल्क को यह किस अज़ाब में.
एक मुजरिम है वो इंसा कोई पीर नहीं है .
क्यों ढूँढ़ते हो फ़रिश्ता तुम अजमल कसाब में.
नहीं झुकता है ये सर किसी भी बेजा दबाव में.
या गल्तियों से या अदब से मुर्शिद के रुआब में.
 मित्रो  यह ग़ज़ल ओपन बुक्स ओन लाइन पर तरही मुकाबले में शामिल करने के लिए लिखी थी अब इसको अपने हे ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूँ ।

ज़रूरत क्या है चंदन की बागे गुलाब में .
इज़ाफ़ा इत्र से होता नहीं उनके शबाब में.
मुस्कराते हैं वो भी मुस्कराहट के ज़बाब में .
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे ज़बाब में.
नहीं है फायदा कोई भी खुश्बू मिलाने से .
सुना है एक मछली आ गयी है इस तलाब मे.
मौज़ूदगी किसी भी अज़ीज़ शक्स की.
दो प्रेमियो को लगती है हड्डी कबाब में.
इशके हकीकी का नशा लग गया जिसको .
आता नहीं उसको मज़ा साकी ओ शराब में.
मोड़ देते है तूफ़ानो को जिनके दिल में कुब्बत है.
मगर कमज़ोर बह जाते है मामूली बहाव मे.
शर्म से बात दिल की रु-ब-रु कह पाए न हमसे
छिपाया कुछ नहीं हमसे वो आये जो ख्वाब में
निकाला नुक्स है घोड़े में जिस आली जनाब ने .
नहीं सीखा है उसने पाँव भी रखना रकाब में. .
करोडो खर्च करते हो तुम जिसके रख रखाव में .
लेके आये हो तुम मुल्क को यह किस अज़ाब में.
एक मुजरिम है वो इंसा कोई पीर नहीं है .
क्यों ढूँढ़ते हो फ़रिश्ता तुम अजमल कसाब में.
नहीं झुकता है ये सर किसी भी बेजा दबाव में.
या गल्तियों से या अदब से मुर्शिद के रुआब में.

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

भरत की व्यथा


भरत की व्यथा 
घनी अंधियारी  काली रात ।
सूझता नहीं हाथ को हाथ ।
घोर सन्नाटा सा है व्याप्त ।
नहीं है वायु भी पर्याप्त ।

नहीं है काबू में अब मन ।
हुआ है  जब से राम गमन ।
भटकते होंगे वन और वन ।
सोंच यह व्याकुल होता मन ।

नगर से बाहर सरयू तीर ।
साधू के वेश में बैठा वीर ।
झरे नयनों से निर्झर नीर।
न जाने कोई  उसकी  पीर ।

न हो जब कोई कार्य विशेष ।
करे तब मन निज हिर्दय प्रवेश ।
रह रह कर उठता है आवेश ।
अभी भी एक बरस है शेष ।

सोंच मन होता वहुत अधीर ।
तोड़ मर्यादा की प्राचीर ।
कहीं नश्तर के जैसी पीर ।
न डाले मेरे  उर को चीर ।

भरत जो नहीं सका पहिचान।
खून की महिमा से अनजान ।
लखन के संकट में थे प्राण ।
भरत को बना रहे निष्प्राण ।   

रक्त का ऐसा है सम्बन्ध ।
बनाता है ऐसा अनुबंध।
भाई पर आये दुःख का फंद ।
भाई नहीं रह सकता निस्पंद ।

नहीं है शेष कोई भी काम ।
सतत है प्रतीक्षा अविराम ।
गए है जब से वन में राम ।
भरत कैसे पाए विश्राम ।

गगन में हुई प्रकाश की वर्ष्टि ।
थम गयी जैसे मानो श्रष्टि ।
भरत के मन ने की जब पुष्टि ।
गड़ा दी आसमान में द्रष्टि ।

कर रहा नील गगन को लाल ।
हाथ में पर्वत लिए विशाल ।
आकृति में  लगता था विकराल ।
गति मानो मायाबी चाल  ।

न हो भैया को कुछ नुकसान ।
आकृति को राक्षस जैसा जान ।
लक्ष्य पर लिया निशाना तान ।
भरत ने किया वाण संघान ।

लगा जब कपि को जाकर तीर ।
हुई तब उसको भीषण पीर ।
तुरंत ही मूर्क्षित हुआ शरीर ।
गिरा फिर आहत हो कर वीर ।

कहा गिरते गिरते श्री राम ।
भरत को अचरज हुआ महान ।
गए जब परिचय कपि का जान ।
कहा तब क्षमा करो हनुमान  ।

लखन को लगा शक्ति का वाण ।
इसलिए संकट में है प्राण ।
हो रहा है प्रभात का भान ।
अतः अब विदा करो श्रीमान ।

भरत तब बोले हे हनुमान।
मुझे है राम चरण की आन ।
लखन तक तुरत करो प्रयाण ।
बैठ जाओ तुम मेरे वाण ।

कहा तब हाथ जोड़ हनुमान ।
हर्दय में सदा वसत है राम ।
पहुँच जाऊँगा लेकर नाम ।
राम से बड़ा राम का नाम ।

भरत ने कहा सुनो हनुमान ।
कर रहे पूर्ण राम के काम ।
आज मै भेद गया ये जान ।
भक्त के वश में क्यों भगवान् ।