शनिवार, 21 मई 2011

शब्द

व्यथित मन की खिडकियों को खोलकर|
शब्द व्याकुल हैं निकलने के लिए||

पहले थोडा झिझक कर फिर ठिठक कर|
आ गए बाहर अचानक छिटक कर||
फिर भी थोड़े से बचे जो रह गए|
मन के आंसू शब्द सारे बह गए||
झांकते हैं सींखचों से आँख की|
बच गए आंसू जो जलने के लिए||

दिल के संग जब तक रहे स्वच्छंद थे|
कर लिया फिर कैद उनको बुद्धि ने||
सभ्यता में बध के तो बेचैन थे पर|
दे दिया उनको सहारा सद्बुद्धि ने||
मन में फिर शालीनता से छिप गए| 
जो तडपते थे मचलने के लिए||

जब मैं बालक था बहुत नादान  था|
शब्द नटखट थे बड़े ही चुलबुले थे||
था जवानी में ना स्थिर मन मेरा|
शब्द मानव पानी में उठते बुलबुले थे||
खुद ही कहता खुद ही मैं आतुर था रहता|
अर्थ अपने ही बदलने के लिए||

पर नहीं अभिव्यक्ति जो पा जायेंगे|
मत समझना घुट के वह मर जायेंगे||
एक जुट होकर वो बाहर आयेंगे|
जब सहारा कलम का पा जायेंगे||
बन के कविता फिर विचरने के लिए|||

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