न मंदिर से न मस्जिद से न कशी से मदीने से
जो सुख मिलता है मुझको लग के अपनी माँ के सीने से
हज़ारों फूल मिलकर भी वो खुशबू पा नहीं सकते
महक उठती है जो मज़दूर के बहते पसीने से
अगर हो सामने मंजिल तो इसमें शक नहीं यारों
संवर जाते हैं पल में काम अटके हों महीने से
जिसे खुद पर यकीं हो वो हे मेरे संग शामिल हो
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफिने से
जो पत्थर धुल में लिथड़े ठोकरे खाते ही रहते थे
वाही उसने लगा डाले इमारत में नगीने से
जो सुख मिलता है मुझको लग के अपनी माँ के सीने से
हज़ारों फूल मिलकर भी वो खुशबू पा नहीं सकते
महक उठती है जो मज़दूर के बहते पसीने से
अगर हो सामने मंजिल तो इसमें शक नहीं यारों
संवर जाते हैं पल में काम अटके हों महीने से
जिसे खुद पर यकीं हो वो हे मेरे संग शामिल हो
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफिने से
जो पत्थर धुल में लिथड़े ठोकरे खाते ही रहते थे
वाही उसने लगा डाले इमारत में नगीने से
बहुत खूब!
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